स्वयंवधू - 1 Sayant द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

स्वयंवधू - 1

मैंने सुना था कि ज़िंदगी सभी को मौका देती है, यहाँ तक कि उसे भी जो इसके लायक नहीं होते। मैंने सोचा कि मेरे पास भी एक मौका है, लेकिन यह मेरा भ्रम था, वो आज मिटने वाला था...

"कितना लंबा लाइन है। आधे घंटे से यहाँ खड़े हैं, और कितना वक्त लगेगा?!", मैं शिकायत करते हुए लाइन में खड़ी थी,

"चुप-चाप खड़े रहो मैं भी तो यह खड़ा हुआ हूँ!", भाई मुझे डांट रहा था,

"तुम्हें तो आदत है, ना...भाई", उसके ऊपर टेकी लेने की कोशिश कर रही थी,

"पीछे हटो गधी! मुझे तुम्हारी एक शिकायत नहीं सुननी। तुम्हारे ही अलास के कारण हम यहाँ देर से पहुँचे और यहाँ एक घंटे से फँसे हुए हैं। अब दूर हटो और सीधे खड़ी हो!", मुझे पीछे ढकेलते हुए कहा,

"गलती किसकी थी बताना, हाँ? तुम्हारे ही पेट का इंतज़ाम कर रही थी!", मैं भी आज अच्छे मूड में नहीं थी, सुबह से लग रहा है कुछ होने वाला है, कुछ होने वाला है।

हमें लगा कि डैडा देख रहे थे। डैडा हमें घूरकर देख रहे थे। यह हमारे लिए अंतिम चेतावनी थी। हम स कहा,

हम दोनों बड़े ही सावधान से धीमे-धीमे लड़ रहे थे,

"अगर एक दिन हम गायब हो गई ना तब तुम्हें मेरी कीमत पता चलेगी!", मैंने थोड़ा मुँह बना कर कहा,

टीकाकरण में भाई का नंबर आ गया तो वो अंदर जाते हुए, "कोई तो ऐसी करावासी जिंदगी से बचेगा।", कह वो अंदर चला गया,

(सही तो कहा उसने हमारी जिंदगी किसी कायर से कम है। मैं भी इस कैदी वाली जिंदगी से छूटना चाहती हूँ पर एक भी कायर ही हूँ। दी की तरह चालाक नहीं, ना भाई कि तरह शक्तिशाली। बस एक निराश बेवकूफ।)

मैं बिल्कुल बेवकूफ की तरह लाइन में खड़ी थी। 

कुछ देरी बाद भाई बाहर आकर "जाओ रे मंदबुद्धि!",

मैं अंदर गई और मेरा टीकाकरण हो मैं बाहर आ गई।

बाहर भाई मेरा इंतजार कर रहा था, "चले?"

मेरा हाथ दर्द से फड़फड़ा रहा था।

जब हम अस्पताल से बाहर निकल रहे थे, हमने कुछ अजीब सूट वाले लोगों को अस्पताल में घूमते देखा जोकि पहले यहाँ कभी नहीं हुआ। हम छोटे द्वीप वाले थे जहाँ लगभग हम हर किसीको जानते मुझे छोड़कर। मैं एक सामाजिक रूप से अजीब इंसान हूँ, मैं आसानी से डर जाती हूँ और हर स्थिति में खाली हो जाती हूँ।

मैं उनसे थोड़ा डर गई थी। हमारे लिए ये सब देखना कोई रोज़मर्रा की बात नहीं थी, दूसरे लोग भी उन्हें घूर रहे थे। अपना डर को छुपाने के लिए मैंने भाई से पूछा, " तुम उन्हें देखा? बहुत डरवने थे ना वो लोग?",

"डरपोक!", वह हमेशा मेरा मज़ाक उड़ाता रहा,

मैं वह से निकलना चाहती थी।

"भाई जल्दी चलो प्लीज़!", मैं उसका हाथ पकड़कर उसे खींचकर ले जा रही थी,

"क्या हो गया तुम्हें अचानक?", (इसने ऐसा पहले कभी नहीं किया तो आज क्या हुआ?)

(मुझे बहुत ज़ोर से लग रहा है कि कुछ होने वाला है।) -डैडा का घबराया हुए थे,

"कहाँ मटरगश्ती करने चले गए ये लोग!", डैडा पार्किंग लॉट से फिर हस्पताल की ओर भागे,

(हे भगवान! कृपया मेरे बच्चों की रक्षा करें। मुझे नहीं पता क्यों, लेकिन वे हमेशा की तरह आपकी छत्रछाया में हैं। कृपया उन पर नज़र रखें!)- उसी वक्त मम्मा ऐंटीना भी चालू हो गया,

अस्पताल के मुख्य द्वार पर हमें पीछे से एक भारी आवाज़ सुनाई दी, 

"वृषाली राय!", 

"वृषाली राय!!", फिर उसने ज़ोर से मेरा नाम पुकारा।

मैं चौंक गयी। मुझे नहीं पता कि कुछ संदिग्ध लोग मेरा नाम इतने चिल्ला-चिल्लाकर क्यों पुकार रहे थे। और वे इस दुनिया में मुझे कैसे जानते हैं?!- एक असामाजिक लड़की को!

मैं वहाँ बुरी तरह से जम गई थी, समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूँ? माफिया जैसे दिखने वाले लोग मुझे क्यों ढूँढ रहे थे? एक माफिया? एक शरारत? या एक हत्या? नहीं, नहीं, नहीं!,

(मरने कि ये मेरी कोई उम्र है?)

"डरो मत, बस ऐसे चलो जैसे कि तुम इस नाम को पहचानती नहीं और चलते चलो।", भाई मेरा हाथ पकड़ मुझे ले जा रहा था,

(!) उसने मुझे मेरे कंधे से पकड़ लिया। हम इमारत का प्रवेश द्वार पार कर चुके थे। दो मोड़ और हम अपनी कार तक पहुँच गए थे और हम इस तनावपूर्ण स्थिति से बाहर! मैंने यही सोचा था ...जैसे ही हम इमारत से बाहर निकले, हमने देखा कि डैडा कार में हमारा इंतजार कर रहे थे। मुझे थोड़ा चैन आया।

जैसे ही हम कुछ कदम कि दूरी पर अपनी कार के पास पहुँचे, किसी ने पीछे से मेरा हाथ पकड़ लिया और मुझे ज़मीन पर गिरा दिया। मैं झटके में वहीं पड़े सोच रही थी कि आखिर हुआ क्या?

मैं उठ रही थी तब मैंने देखा कि वहाँ काले कपड़ों में कुछ और लोग जुड़ थे। उन्होंने डैडा और भाई को घेर लिया।

मेरा डर सच हो गया, ये लोग खतरनाक थे।

हमें अब बाहर निकलना होगा! आख़िर कैसे?

मैं समझ नहीं पा रही थी कि हम किस स्थिति में थे।

अचानक डैडा ने बात शुरू कर दी, "देखो, मुझे लगता है कि आपने गलत व्यक्ति को चुना है। आप किसे ढूँढ रहे हैं?",

(डैडा, आप क्या सोच रहे हैं?)

मैं स्थिति में ऐसी फँस गई थी कि मैंने अपने आस-पास ध्यान देना बंद कर दिया था। अचानक मैंने किसी के गिरने की तेज़ आवाज़ सुनी, हम यह देखने के लिए तेज़ी से मुढ़े कि क्या हुआ? भाई ने उस आदमी को बुरी तरह गिरा दिया था। फिर उसने डैडा के पास खड़े आदमी पर पत्थर फेंका, मेरा हाथ पकड़कर मुझे उठाया और हमारी कार की ओर भागने लगे। उसने बिल्कुल उसके सिर पर पत्थर मारा था ताकि वह थोड़ी देर के लिए हिल-ढुल ना पाए।

(हम सुरक्षित हैं।) मैंने फिर बहुत जल्दी बोल दिया।

फिर किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया, और इस बार यह चौंकाने वाला था जैसे मानो मेरी रगों में बिजली दौड़ गई हो। वह स्थिर था। मैं भी वहाँ एक पल के लिए स्तब्ध हो गयी थी।

(हो क्या रहा है? ऐसा क्यों हो रहा है? ये कौन हैं? क्यों हैं?) मेरे मन में कई सवाल उमड़ रहे थे और साथ ही मैं अपना हाथ उससे छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। लेकिन मैं नहीं कर सकी। उसके हाथ इतने बड़े थे जैसे वह बिना किसी ताकत के मेरे दोनों हाथों को अपने एक हाथ से पकड़ सकता था। वह इतना शक्तिशाली था, मेरे पास उसके खिलाफ कोई मौका नहीं था।

उ-उसकी आँखे बहुत डरावनी थी, सूखी, बेजान और डरी हुई लगी। उसकी निगाहें भारी थीं। मैंने भागने की पूरी कोशिश की लेकिन वह सचमुच बहुत मज़बूत था। वे उसे सर कह रहे थे। उसके आदमी ने हमें पूरी तरह से ढाक लिया था। मैं कुछ भी नहीं देख सकी। जब मैंने देखा तो पहले के गिरोह की जगह नए लोगों ने ले ली थी।

हम नहीं जानते कि इस स्थिति में फँसने के लिए हमने क्या किया? उसके आदमी ने डैडा और भाई को फिर से पकड़ लिया था। मैं अपना हाथ छुड़ाने के लिए बहुत कोशिश की पर वह ताकतवर था उसकी हाथ हल्की सी भी हिल नहीं रही थी।

मैंने चुपचाप दर्द भरे स्वर में कहा, "मेरी कलाई...आह...", उसने आश्चर्यजनक रूप से मेरी धीमी आवाज़ सुनी और अपनी पकड़ ढीली कर दी, लेकिन वह इतना सख्त था कि उसने मेरी गतिविधियों पर नियंत्रण कर लिया।

उस समय लोग इकट्ठा होने लगे....लेकिन कोई मदद नहीं कर रहा था। सब वहाँ खड़े होकर तमाशा देख रहे थे। यहाँ तक कि जिनकी मदद हमने की! जिसकी बेटी कि इज़्ज़त को मेरे भाई ने बचाई थी, वो भी! सब स्वार्थी थे! केवल हँसना और वीडियो लेना!

भीड़ से उसका ध्यान भटक गया।

मैंने डैडा और भाई की ओर देखा। डैडा कार के दरवाज़े के पास थे, मैं बस कुछ कदम की दूरी पर थी और भाई भी कार के पास ही था, अपने बड़े आकार के कारण वह कुछ ही समय में कार तक पहुँच जाता। डैडा ने हमें इशारा किया और डैडा ने कार का दरवाज़ा खोला जिससे उसके आदमियों को टक्कर लगी, भाई ने दो लोगों को कुचला और उसी समय मैंने अपना हाथ छुड़ा लिया और हम अपनी कार की ओर भागने लगे, यही सुरक्षित रहने का यही एकमात्र तरीका था। वहाँ मेरे अलावा कोई भी पाँच फीट के नीचे नहीं था। नतीजा, मैं भागने के बीच में ही फँस गयी। मैं खुद को बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी। उस खींचा-तानी में मेरा हाथ फिसल गया और मेरा माथा सीधा पार्किंग की दीवार से टकरा गया। टक्कर बहुत ज़ोर और बुरी थी, इतना कि मैं इसे सहन नहीं कर सकती। मुझे अपने पूरे चेहरे पर कुछ गर्म महसूस हुआ, लोहे सा स्वाद मेरे मुँह में महसूस हुआ, खून? यहाँ तक कि मेरी दृष्टि भी लहूलुहान हो गई थी। सब कुछ लाल था! मैंने उन्हें धुंधला होते देखा और फिर मेरी दृष्टि धुंधली होती गई और अंततः वह काली हो गई...थप!

मेरा सर दर्द से फटा जा रहा था। मैंने अपनी आँखें खोलीं तो इतनी रोशनी थी कि मेरी आँखों को रोशनी के साथ तालमेल बिठाने में समय लग गया।

(एक अज्ञात छत?) मैं एक अज्ञात कमरे में जागी। देखने से ऐसा लग रहा था कि यह मेरे गाँव के अस्पताल का ही कमरा था। इसका मतलब था कि हम सफलतापूर्वक बच निकले? मुझे लगा कि उसने नहीं सोचा था कि यह एक वास्तविक अपराध बन जाएगा, हो सकता था कि वह भाग गए हो। मैं सुरक्षित होने से खुश तो थी साथ ही गजब दर्द में भी थी! दर्द, यह मेरे सिर से पैर तक दौड़ रही थी। मैं बस अब अपने परिवार से मिलना चाहती थी।

मैं अपने विचारों में खोयी हुई थी कि मैंने एक नहीं बल्कि दो या तीन लोगों के कदमों की आवाज़ सुनी। वे इसी दिशा में आ रहे थे। मुझे उनसे मिलने कि खुशी थी। जब वे मेरे कमरे के पास थे तो मैंने किसी को बात करते हुए सुना,

"...क्या उसे इसकी अनुमति है?", एक आवाज़ लेकिन घनी आवाज़, यही वह आवाज़ थी जो मैंने कभी नहीं सुनी।

(आखिर ये किसके बारे में बात कर रहे है?-खैर छोड़ो-) पर यह मेरे परिवार के किसी भी सदस्य की आवाज़ नहीं थी, यह मेरे लिए बिल्कुल अजनबी आवाज़ थी। जैसे-जैसे वे और करीब आये, मेरा दिल ना जाने क्यों तेज़ी से धड़धड़कने लगा जैसे यह किसी भी समय बाहर आ जाएगा।

आवाजें उन्हीं की थी! मैं खुद पर विश्वास नहीं कर सकी! पता चला कि मैं अब भी उनके कब्ज़े में थी। डैडा के बारे में क्या? भाई के बारे में क्या? वे कहाँ थे? दोंनो ठीक तो थे? क्या उसने उनके साथ कुछ किया तो नहीं? मुझें नहीं पता, लेकिन मैं जानना चाहती थी! मुझे किसी बात का डर नहीं थी, भले ही अंतर्मुखी हूँ, और ये मुझे अपने परिवार के बारे में जानने से नहीं रोक सकता!

मैंने उठने की कोशिश की। मैंने तकिये का सहारा लिया, बिस्तर के कोंनो का सहारा लिया, वह सब कुछ का सहारा लिया जिस पर मैं अपना हाथ रख सकती थी और उठी। मुझे चक्कर आ रहे थे, दर्द हो रहा था। मुझे अच्छा महसूस नहीं हो रहा था, ऐसा लगा मानो दुनिया बिखर जायेगी। मेरी पीड़ा के बीच मैंने उन्हें कमरे में प्रवेश करते हुए सुना। मेरी रीढ़ की हड्डी जम गई। पता नहीं वे मेरा में क्या करेंगे?

मैंने सुना कि वे अंदर आ गए। मेरे पास पूछने के लिए बहुत सारे प्रश्न थे लेकिन मेरे डरपोक व्यवहार के कारण मैं घबराने लगी। मैं पहले से ही हाँफ रही थी, मैंने उन्हें देखा। जब उन्होंने मुझे देखा तो वे चौंक गये। वे मेरी ओर तेज़ी से बढ़े। एक औरत और उस आदमी ने मुझे फिर से लिटा दिया। मैं अपने परिवार के बारे में प्रश्न मन में घूम रहे थे पर पूछने की कोशिश में मैं ठीक से साँस नहीं ले पा रही थी। मैं असहाय होकर लेटी हुई थी।

"मैं तुम्हें अब एक इंजेक्शन दूँगी। यह तुम्हें दर्द से राहत दिलाएगा। अब अपनी आँखें बँद कर लो।", उस महिला की सौम्य आवाज़ थी, उस इंजेक्शन के बाद मेरा दर्द कम होने लगा मेरा सिर धुंधला हो गया...

मैं दूसरी बार जागी। घना अंधेरा था, केवल खिड़की से आने वाली रोशनी ही रोशनी का एकमात्र स्रोत थी जोकि किसी काम की नहीं थी। मुझे नहीं पता कि मैं कहाँ थी। मैं उठने की कोशिश की लेकिन फिर उठ नहीं पाई।

मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा था। उठने के लिए मेरा संघर्ष और मेरी ताकत को एक साथ लाने के लिए संघर्ष कर रहा मेरा शरीर काफी थका देने वाला था। मैं अभी आधा उठी ही थी कि मैंने किसी को अंदर घुसते हुए सुना। दंग रह गई!

मुझे लगा कि कोई तेज़ी से मेरी ओर दौड़ा और मेरी मदद करने लगा। क्यों?! मैं कुछ देख नहीं सकी लेकिन उसके स्पर्श से मुझे महसूस हुआ कि यह वही आदमी था। मैंने उसे धक्का देने कि कोशिश की, धक्का देते समय गलती से मेरा हाथ उसके हाथ पर लग गया। मेरे शरीर में फिर से एक झटका सा महसूस हुआ।

"अ-आह!", मैं दर्द से करहाई, वह भी हल्के से करहाया,

"क्या तुम ठीक महसूस कर रही हो?", एक गहरी लेकिन शांत आवाज़ ने पूछा,

उसने बत्तियाँ जला दीं। अचानक से अंधेरा हटा, मुझे अपनी आँखें समायोजित करने में कुछ क्षण लगे, फिर जब मैंने अपनी आँखें खोलीं तो मैं गुड़िया के घर जैसे कमरे में थी।

यह चमकदार सफेद रोशनी के साथ गुलाबी कमरा था। तेज़ बारिश कि आवाज़। इसका सेटअप एक गुड़िया के घर की तरह था। मेरे लिए बहुत ज़्यादा रोशनी। यह एक ही समय में खुला और दमघोंटू, दोंनो था। 

बाहर निकलने के लिए केवल एक ही दरवाज़ा और एक सफेद खिड़की थी। दरवाज़ा बंद था और मैं इस कमरे में इस आदमी के साथ अकेली थी, वह बहुत परेशान करने वाला था। मैं अपने विचार एकत्रित नहीं कर पा रही थी!

(क्या यह वही है जिसे वे बॉस कह रहे थे?

मैं कहाँ हूँ?

क्या मेरा अपहरण हुआ है? लगता तो है?

लेकिन क्यों?!)

इस अचानक अहसास ने मुझे बहुत बुरी तरह झंझोर दिया और सचेत हो गयी। वो हाथ बढ़ाकर मेरे पास आया। मैंने डरकर अपने बचाव में उसे धक्का दिया। 'छन...' ग्लास टूटने की आवाज़ आई।

टूटे गिलास को देख मुझे लगा कि मैं तो गई! वह बहुत क्रोधित होगा और मुझे पीटेगा लेकिन मेरे आश्चर्य में उसने मेरे हाथों की जाँच की कि कहीं मैंने खुद को चोट तो नहीं पहुँचाई?

मैं हक्की-बक्की पड़ी थी। उसने काँच साफ करने के लिए कुछ आदमियों को बुलाया और वे साफ कर वहाँ से निकल गए। 

मेरे विरोध के बाद भी उसने फिर से मेरे हाथों की जाँच की। वह मज़बूत था, इससे उसे कोई परेशानी नहीं हुई। फिर उसने मुझे पानी का गिलास दिया और इस बार उसने मुझे पानी पिलाया उसके साथ दवा भी।

फिर इससे पहले कि मैं उससे कोई सवाल पूछ पाती उसने कहा, "हम कल बात करेंगे।",

बस! मैं अब और इंतज़ार नहीं कर सकती। मैं चिल्लाई, "डैडा और भाई कहाँ हैं?!",

वह मुस्कुराया। ऐसा लग रहा था वह मुझसे पूछने की उम्मीद कर रहा था।

उसने शांत चेहरे से कहा, "वे शायद सो रहे होंगे?",

"क्या! 'सो रहे होंगे?' ?", (क्या तुम सो रहे हो!?) मैंने हैरानी से पूछा,

"हाँ। तुम्हें क्या लगता है इस समय लोग क्या कर रहे होंगे?", उसकी मुस्कुराहट डरावनी थी,

फिर वह अचानक गंभीर हो गया और बोला, "वे अपने घर पर सुरक्षित और स्वस्थ हैं।",

"मैं तुम पर कैसे भरोसा कर सकती हूँ?", मेरे पास उस पर भरोसा करने का कोई कारण नहीं था,

"मुझे पता है कि यह तुम्हें आश्वस्त करने वाला लग रहा होगा लेकिन वे सच में सुरक्षित हैं और तुम स्वयं भी।",

"फिर से कहना।", क्या वह सचमुच सोचता है कि मैं उस पर विश्वास करने लायक मूर्ख हूँ? मुझे उसके आत्मविश्वास से नफरत हो रही थी! 

अरे नहीं! मुझे अचानक थोड़ा चक्कर आने लग, (अचानक! वो दवा क्या थी?) मेरे सर घूमे जा रहे था...मुझे उससे बहुत सारे सवाल पूछने थे...बस पूछना था! मैं असहाय महसूस कर रही थी। इस बीच उसने मुझे आराम से लिटाया और चादर से ढाक दिया। मुझे बस इतना याद था कि उसने 'शुभ रात्रि' कहा और लाइटें बंद कर दी...उस कमरे में अब बस बारिश कि आवाज़ गूँज रही थी...

अगली सुबह-

बारिश अब भी अपनी तेज़ी में था। मैं फिर से सिरदर्द के साथ उठी। मौसम बहुत ठंडा था, मुझे ठंड लग रही थी। ठंड से बचने के लिए मैं चादर के नीचे घुसी हुई थी तभी मैंने दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनी। मैं बाहर निकली और एक महिला अंदर आई, उनकी उम्र शायद 40 या 50 के बीच कि लग रही थी।

“वृषाली?”, उन्होंने मीठी आवाज़ में मेरा नाम पुकारा,

"जी?", मैंने दर्द से जवाब दिया,

"यह बहुत अच्छा है कि तुम ठीक दिख रही हो। तुम पूरे दो दिन तक सोते रही। हम उस समय डर गए थे।", वह ऐसे गर्मजोशी से बात कर रही थी जैसे वह मुझे बहुत समय से जानती हो,

"दो दिन?", मैं चौंक गई, "कल रात को ही तो ने मुझे दवा दिया था?", मेरे लिए इसे पचाना मुश्किल था। मैं दो दिनों तक कैसे सो सकती हूँ? लगातार सोचते रहने से मेरा सिर दर्द करने लगा, (अह!),

मैंने अपनी ताकत इकट्ठी की और पूछा, "...क्या यह कोई मज़ाक है?",

मैं एक सेकंड के लिए रुकी और रोते हुए स्वर में कहा, "अगर ये एक मज़ाक है तो कृपया कर इसे बंद कर दीजिए। मुझे नहीं पता कि आप क्या चाहते हैं..." (मुझे घर जाना है... मैं आपसे विनती करती हूँ मुझे जाने दीजिए...) मैं जितना बोल रही थी, उससे कही अधिक कहना चाहती थी।

उन्होंनेे सौम्य मुस्कान के साथ मेरी ओर देखा और कहा, "बस स्वस्थ खाओ और स्वस्थ रहो!", उन्होंने मेरे लिए कुछ दलिया बनाया,

मैं अपने दाँत साफ़ किये बिना खाना नहीं खाती, "...मैं अपने दाँत ब्रश करना चाहती हूँ।" मैंने जितनी सहजता से हो सके कहा, 

"ओह! तुम अपने दाँत ब्रश करना चाहती हो?",

"हाँ।",

"ठीक है, लेकिन खड़े मत होना, तुम अभी भी कमज़ोर हो।",

(घाव छोटी हो या बड़ी उससे इनको क्या?)

"यह ठीक है, यह इतना बड़ा नहीं है।", मुझे हर चीज़ से डर लगने लगा था,

उसने मुझे एक टूथब्रश दिया और मुझे बिस्तर पर ब्रश करने को कहा। मैंने तौलिये से अपना चेहरा पोंछा और अनिच्छा से नाश्ता किया। नाश्ते के बाद उन्होंने जो भी दवाइयाँ मुझे दीं, मैंने बिना सवाल किए ले ली क्योंकि मेरे पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं था।

फिर मैंने पूछा, "मैं यहाँ क्या कर रही हूँ?", अब मुझे यह स्वीकार करना होगा, यह सबसे खराब प्रश्न था जो मैंने पूछा था।

वह बस ऐसे मुस्कुराई जैसे मैं मूर्ख थी और चली गई।

थोड़ी देर बाद वह अंदर आया। वह वास्तव में मेरे से उलट था- बड़ा था, वह मेरी ऊँचाई से दोगुना या उससे भी अधिक था। मुझे उसके खिलाफ कोई मौका नहीं मिल सकता। मैं उसकी ऊँचाई और शरीर से डर गयी थी। मैं इतना डर गयी थी कि वही जम गयी। वह मेरे पास आने लगा, मैं घबरा गयी और इतनी ज़ोर से पीछे गयी कि मेरा सर सीधा हेडबोर्ड से जा टकराई कि मुझे एक सेकंड के लिए तारे देखने लग गए, "आउच!", मुझे दर्द से ज़्यादा शर्मिंदगी महसूस हो रही थी,

"क्या तुम्हें चोट लगी है? मैं डॉक्टर को बुला रहा हूँ।", जिसने पहले मुझे चोट पहुँचाई थी वह अब डॉक्टर को बुला रहा था और मेरे लिए डरा हुआ लग रहा था?

थोड़ी देर बाद वही डॉक्टर अंदर आई। वह उसी अस्पताल से आई हुई व्यक्ति थी, इसका मतलब था कि मैं उस पर भी भरोसा नहीं कर सकती, उसने मेरी जाँच की और बाहर चली गई। मैंने आवाजें सुनीं, (शायद वे बात कर रहे थे। ये मेरा इतना ख्याल क्यों रख रहे है?),

थोड़ी देर बाद वह आदमी फिर आया,

मैं शर्मिंदगी और दर्द में पड़ी हुई थी, मैं उससे मिलना नहीं चाहती तो मैंने खुद को चादर के नीचे छुपा लिया, वह मेरे पास खड़ा हुआ और पूछा, "क्या तुम मूर्ख हो?"

बेइज्जती सुन मैं बाहर निकली,

उसी वक्त उसने पूछा, "दर्द दे रहा है?", (मेरे दर्द का कारण मुझसे पूछ रहा है कि क्या मुझे दर्द हो रहा है?)

"यह सब तुम्हारी वजह से-", मैं एक सेकंड के लिए रुकी, (कहीं मैंने पैर कुल्हाड़ी में तो नहीं मार दिया?)

"जिसने ने खुद को बेवकूफ की तरह ठोका वो कह रही है?", वो मुझे ताना मार रहा था,

मैं चुप रही।

(वह ईमानदार नहीं हो सकती?) 

"हाहा! तुम असहज हैं, है ना?"

उसने कुछ नहीं कहा पर उसकी आँखों सब बया कर रही थी। (लगता है मुझे जाना चाहिए।)

"मैं तुम्हारे लिए एक सहायक छोड़ रहा हूँ, बस उससे मदद लेना और कोई भी अनावश्यक काम मत करने की सोचना भी मत।", 

वह कमरा छोड़कर चला गया और मैं उसके सहायक के साथ अकेली थी। उसने मुझे उस स्थिति में आराम करने में मदद की जिसमें मैं सहज थी। उसके भी चले जाने के बाद मैं वहीं अकेला थी। दोंनो जगह से मेरा सर फटा जा रहा था। जैसे ही दवा ने असर दिखाना शुरू किया, मुझे दर्द कम होकर अच्छी नींद आने लगी। इस बार मैं रात को शायद सात बजे उठी। मुझे पूरे शरीर में गर्मी महसूस हुई। मेरे बगल वाली दराज़ में मैंने तिरछी नज़र से देखा। वहाँ एक बर्तन और एक तौलिया रखा हुआ था।

मैंने उस तौलिये को छुआ, (‌नर्म है।)

"अब कैसा लग रहा है।", उन्होंने बड़े प्यार से पूछा,

"ठी-?", मैंने उत्तर देने के लिए अपना मुँह खोला, मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी आवाज़ कर्कश थी और मेरा सिर भी गर्म और अतिरिक्त हल्का था। उन्होंने मुझे उठने में मदद की। उन्होंने सामने सूप रख दिया।

"खाकर बताना अगर तुम्हें कुछ और चाहिए।",

"जी...", उसके बाद वह बाहर चली गयी,

मैंने सूप पूरा को पूरा पी लिया। लगभग उसी समय वह अंदर आई और अपनी हथेली से मेरा तापमान जाँचा।

उन्होंने मुझसे और पूछा, पर मेरा पेट भर चुका था तो मैंने मना कर दिया।

"खाना बहुत स्वादिष्ट था।", मैं जानती थी इतनी मेहनत पर एक धन्यवाद भी नहीं मिलना कितना बुरा लगता है।

वह बिस्तर पर मेरे पास बैठ गई, "चिंता मत करो बेटा तुम सुरक्षित हो। वृषा दिखाता नहीं पर वो नर्म स्वभाव का है। जो हो रहा है अच्छे के लिए हो रहा है, बस ईश्वर पर विश्वास रखो।",

वो मेरे पास बैठकर मेरे हाथ पकड़कर उन्होंने कहा, " मैं अब बूढ़ी हो गई हूँ और पहले जैसी तंदरुस्त भी नहीं हूँ।",

(आखिर उनके कहने का मतलब क्या है?)

"क्या आप ठीक महसूस कर रहे हैं?", मुझे नहीं पता कि इस वक्त क्या कहूँ,

उन्होंने हँसते हुए कहा,"तुम बिलकुल वृषा जैसी हो।”,

"ऐं?", मुझे समझ नहीं आया ये वृषा कौन है?

वह मुस्कुराई और बोली, "इन दो दिनों में वृषा ने तुम्हारी बहुत सेवा की खासकर रात को।",

"रात को?!!", क्या मैंने सही सुना!

(कहीं उसने मेरे साथ कुछ...) मैं घबराकर खुद को इधर-उधर छूकर देखने लगी, कही ऊँच-नीच तो नहीं हुई।

वह मुझपर हँसने लगी। पर क्यों?

मेरा माथा छूकर, लंबी सांस ले, "हाह! चलो अब तुम्हारा बुखार कम लग रहा है।",

"बुखार?!" मुझे थोड़ा बुखार सा महसूस हुआ तो,

"अब कैसा लग रहा है? सर्दी-खांसी कुछ?", मेरे सवाल को नजरअंदाज करते हुए पूछी,

"न-नहीं। कुछ परेशानी नहीं है।-पर...बुखार का क्या मामला है आं-आंटी ?", 

वो मुस्कुराकर, "दाई-माँ।",

"क्या?", वह चाहती थी कि मैं उन्हें ये कहूँ? 

मैंने धीरे से उनका नाम लिया "...दाई-माँ?",

वो खुश हो गई, "हाँ ऐसे ही। तुमसे मिलकर खुशी हुई।",

"मुझे भी? तो क्या मुझे एक सवाल पूछने की इजाज़त है? बस एक, वादा! बस यही एक।", मैं उनके सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रही थी,

"उफ! सिर्फ एक।", वो मेरे पास कुर्सी पर बैठ गयी,

"जी।",

"परसो कि बात है। वृषा तुम्हें सुबह के वक्त घर ले आया, तब तुम सो रही थी। हमने तुम्हें यहाँ आराम करने के लिए छोड़ दिया। तुम ठीक लग रहे थी लेकिन परसों अपनी बेवकूफी से फिर चोट लगा ली।"

"उग!", (उस आदमी ने क्या कहा?!)

उन्होंने आगे कहा, "जिसने वृषा को परेशान कर दिया था। शाम होते-होते वृषा को तुम्हारी चिंता हो रही थी तब उसने मुझे तुम्हें देखने के लिए भेजा। तुम्हें जाँचने पर तुम बेहोश बुखार से तप रही थी। मैंने जल्दी से वृषा को बुलाया। ( वेसै वो बाहर ही खड़ा था) उसने जल्दी से राधिका को बुलाया। (जब तक राधिका आई नहीं थी तब तक वृषा का डरा हुआ चेहरा देखने लायक था।) तुम्हारी जाँच करने के बाद हमने राहत कि साँस ली जब उसने कहा 'कोई गंभीर बात नहीं है।' पर तुम्हारा बुखार उतरने में दो दिन का वक्त लगा।", दाईमाँ मेरा हाथ पकड़कर मुझे सब बता रही थी,

मेरे मन में एक ही सवाल गूँज जा रही थी, " मेरे कपड़े- किसने बदले?", जो मेरे ज़बा पर भी आ गए,

"मेरे अलावा और कौन कर सकता है?" दाईमाँँ ने पूछा,

"आ-आपका धन्यवाद!" मुझे जो राहत महसूस हुई वह अवर्णनीय थी, "मेरा ख्याल रखने के लिए धन्यवाद। आपने जो किया उसके लिए मैं पर्याप्त धन्यवाद नहीं दे सकती।",

"यह केवल मैं ही नहीं थी।", दाईमाँँ ने जाते-जाते कहा, "मैं चलती हूँ। वृषा चिंता कर रहा होगा। तुम आराम करो।", 

दाईमाँँ कमरे से चले गई।

अब ध्यान से देखा जाए तो ये कमरा तो सच में बड़ा और आरामदायक था। ये बिस्तर भी बहुत मुलायम और आरामदायक था पर कुछ ज़्यादा ही।

मैं खुद को सिकोड़कर बैठी हुई अपने भविष्य के बारे में सोच रही थी तभी कमरे के दरवाज़े पर खटखटाहट हुई, "अंदर आ जाइए।",

कमरे में वो आदमी अंदर आया, मैं फिर से सतर्क हो गई, "क- क्या चाहते हो?",

वो मेरी तरफ बढ़ रहा था, और उसके हर कदम के साथ मेरी दिल कि धड़कने तेज़ हो रही थी। यही वृषा है? जिसने बीते दो दिनों में मेरी देख-भाल की?

वह अपने हाथों में एक-दो या चार दवाएँ लेकर आया। यह उसके हाथों में बहुत छोटा दिख रहा था। 

"ये तुम्हारी दवाएँ है। ये लाल वाली सुबह के लिए, भूरी वाली दोपहर को, पीली, लाल रात को खाने के पहले, ये सरदर्द देने के वक्त के लिए पर दर्द बर्दाश्त के बाहर हो जाए तभी लेनो...और ये दवा...ये भी....ये सोने के पहले वा-",

(वाह! रूको भाई रूको!) मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा!

उसने मुझसे पूछा, "क्या तुम्हे कुछ याद है?",

मैंने शर्म से अपना सिर झुका लिया,

उसकी हँसी दबाने की आवाज़ आई, "खाना खाकर वक्त हो गया होगा ना?",

(इसे इतनी हँसी क्यों आ रही है?) मेरा दिमाग भन्ना रहा था, (आखिर ये हँस किस पर रहा है?)

गुस्से से मेरा सिर में फिर से दर्द करने लगा, मैंने अपना सिर पकड़ लिया।

मुझे फटने या टूटने कि आवाज़ आ रही थी, उसने मेरे सिर में हल्के से मारा, "दवा ले लो।",

"इन दवाइयों में क्या गड़बड़ी है?", मुझे इस आदमी पर भरोसा नहीं!

"ये निर्धारित दवा है।",

(मैं कैसे मान लूँ?!) दिल तो यही कह रहा था पर पैर पर कुल्हाड़ी मार लूँ, इतनी हिम्मत नहीं थी! जो भी हो दवा या ज़हर खा लो बात खत्म करो! मैंने उसके हाथ से दवा ली और खाकर सब खत्म कर दिया।

(अब तुम्हारा यहाँ खड़े रहने का मौका खत्म हो गया...तो अब प्रस्थान कीजिए!)

.....

ये जा क्यों नहीं रहा?

"अ-आपका धन्यवाद! आप जा सकते है।", मैंने धीरे से कहा,

वो तंसवाली मुस्कान के साथ, " अभी नहीं।"

" क्या?!", मुझे विश्वास नहीं हो रहा कोई इतना बेशर्म और निर्लज्ज कैसे हो सकता था!!